फितूर नहीं हमारी तुझे पाने की, फिर भी तू रहम बरसाता है।
जज़बात नहीं तुझसे मोहब्बत करने का, फिर भी तू गुलिस्तान बिछाता है।
इकरार नहीं इस इबादत में, फिर भी तू शहनाई बजाता है।
होश नहीं हमें अपनी मंज़िल का, फिर भी तू मदहोशी के नाम पिरसता है।
सवाल है इतने सारे बेगानी में, जवाब में तू सिर्फ हँस्ते रहता है।
कोशिश नहीं इंतज़ार में, फिर भी तू राह देखता रहता है।
अंतर नहीं इन ख्यालों के कारवां में, फिर भी तू हमेशा हमारा ख़याल रखता है।
ऐतबार नहीं तेरी हुकूमत का, फिर भी तु हमसे आँखें नहीं चुराता है।
सुकून इस रंग में और कहाँ, आरजू के संग में छुपकर तू रह जाता है।
ख्वाहिश तुझे पाने की बस एक बार ही सही, उसमें जन्नत ही तू दे देता है।
- डॉ. हीरा