फितरते नूर, ये इश्क नहीं आसन;
फ़ना होना उसकी दीवानगी में, हमें नहीं आता।
जुनूने जंग जीतना नहीं आता,
कि उस परवरदिगार की महफिल का ही नहीं पता।
शान-ओ-शैकत की इस ज़िंदगी का है नशा,
फिरते हैं गुलाम बनकर अपने ही जज़बातों के,
गुमराह होके बेकाबू बनाते हैं, अपने अरमानों को,
विचलित होके जीते हैं अपने ही परेशानी में,
कि मातम मानते हैं अपने सुख चैन का,
विरासत में देते हैं सिर्फ पनाह बेईमानों को,
आखिर क्या चाहते हैं, यह ही नहीं जानते इस परवानगी में।
- डॉ. हीरा