जीते जी जो हो जाये, वो हो जाए, ऐसा हम सोचते हैं।
कहाँ जाएंगे हम सब कुछ छोड़कर, क्यों न ये सोचते हैं।
खुद की यात्रा का तो पता नहीं,
दूसरों का सहारा बनना चाहते हैं।
ऐसे अस्थिर मानवी का क्या भरोसा,
जो अपना ही पता न जनता है।
विश्वास सिर्फ उस परवरदिगार का,
कि जो हर हाल में साथ चलता रहता हैं।
कहाँ जीते जी छोड़कर जाएगा वो,
जहाँ हर पल साथ में वह रहता है।
- डॉ. हीरा