हर एक इन्सान तो पुतला है,
अपने मन और इच्छाओं का गुलाम है।
राह वह अपनी खुद पकड़ता है,
सरेआम अपने बेकाबु मन का प्रदर्शन करता है।
हर एक इन्सान तो कमजोर है,
अपने विचारों का ही जोर है।
स्वाद और याद में ही खेलता है,
इस रंगमंच में ही वह गुमराह होता है।
हर एक इन्सान अपने आप का ही दुश्मन है,
खुदा को भुलकर, अपने ही तन की सेवा करता है।
जायेगा यह शरीर एक दिन वह उसको पता है,
अपने ही हाले दिल का ना वह वफादार है।
हर एक इन्सान नादान है,
भ्रम में जीता एक प्राण है।
उलझनों में ही जीने वाला एक सवाल है,
अपने जीवन में क्या चाहता है, वह ही एक सवाल है।
- डॉ. हीरा