समझ, समझ कर समझे नहीं,
यह कैसी समझ है जो समझे नहीं।
अपनी सोच के दायरे में समझे नहीं,
वो समझ को ही समझे नहीं।
जालिमों के मुख की वाणी हम बदलते नहीं,
संतो की वाणी को सुनते नहीं।
समझने के बाद भी समझते नहीं,
हम अपनी समझ को ही समझते नहीं।
तस्वीर अपनी पहचानते नहीं,
अपनी हालत पर हम रोते नहीं।
ज़ुबान को अपनी हम लगाम देते नहीं,
अपने ही चहेरे को हम पहचानते नहीं।
अपनी समझ पर नाज़ करना छोड़ते नही,
नासमझी के दौर में समझ की बुनियाद बाँधते नहीं।
आखिर समझ को अपनी हम पहचानते नहीं,
समझ के समझ को हम जानते नहीं।
- डॉ. हीरा