तरसती हुई ये ऩजर, राह देख रही थी मगर,
कि आएगी कोई खबर, उसके यार की एक ग़जल।
खोई हुई थी वह ऩजर, बनके बैठी वो पत्थर,
के जीत कर हर डगर, आएगा उसका यार उसके घर।
आँसू सिमत रही थी वह ऩजर, खुशी अपने यार के जिगर,
कि आएगा वापिस, हर हाल में जरूर मगर।
ढूँढती हुई थी वह ऩजर, सब में उसके यार की शकल,
कि प्रभु बन गया था वो उसकी ऩजर, प्रभु दिख रहा था उसे हर डगर।
सींचती हुई थी वह ऩजर, बुला रही थी प्रभु को अपने घर,
कि द्वार थे खुले हर पल, आएँगे प्रभु कभी तो एक पल।
- डॉ. हीरा