खेल खेल में, खेल खेल में, कितना सिखा दिया तूने।
अपनी ही मस्ती में गुण गुनाके, कितना सिखा…
न जाना हमने कब, कहाँ, कैसे; कितना सिखा…
बस यूँ ही चलते चलते, कितना सिखा…
परखने बैठे जब हम अपने आप को तो मालूम पड़ा कि, कितना सिखा…
न कोई कथा सुनाई, न कोई पाठ पढ़ाया, कितना सिखा…
न कोई कमी रही, न कोई दुख रहा, कितना सिखा…
न कोई दंड दिया, बस प्यार मिला, कितना सिखा…
सिखाने का एहसास हुआ, एहसास पे आश्चर्य हुआ, कितना सिखा…
तू ऐसे ही सिखाता रहे और हम बोलते रहे कि कितना सिखा…
- डॉ. हीरा