जिस मिट्टी से बने, उसी में एक दिन मिटना है,
इसी धरती में फिर एक बार हमें मिलना है।
हस्ती हमें अपनी यहीं पे खोनी है,
जग में फिर से हमें मिट्टी में मिलना है।
फिर भी इस देह से लगाव हमें इतना है,
कि खुद का अस्तित्व हम उसी को समझते हैं।
जो देखा उसे माना, फिर भी निराकार को मानते हैं,
लेकिन यकीन सिर्फ कहा सुना को ही मानते हैं।
जो मिटता नहीं उसे हम पहचानते नहीं हैं,
हाल अपना है कैसा कि खुद को ही नहीं जानते हैं।
- डॉ. हीरा