जिंदगी के खेल में खोए जाते हैं हम,
कभी हँस के तो कभी रो के जीए जाते हैं हम।
जीवन की इस लहर में बस बहते चले जाते हैं हम,
एक मुर्दे की तरह जिंदगी बीताते हैं हम।
न खुद को ऊँचा उठा सकते हैं हम,
न औरों को भी ऊँचा उठने देते हैं हम।
जिंदगी के इस खेल में हारते चले जाते हैं हम,
मौका आता है बार बार पर फिसलते जाते हैं हम।
करें भी तो क्या करें, अपने आप को फाँसी लगाते जाते हैं हम।
- डॉ. हीरा