हम महफिल की राह देखें, कि फिर से अपने आप में खोऐं?
जब तनहा रहता है मन, तब किसकी तलाश में जाये?
कोशिशें हजार करते हैं, फिर भी फिसलते रहते हैं।
ख्वाहिशों के मेले में, अपने आप को भूलते रहते हैं।
दीवानगी परवानगी की सजदा में, अपनी गुलामी के सिक्के बनते हैं।
तराशते हैं लोगों का व्यवहार, अपनी आदतों के मोहताज रहेते हैं।
शान से बेवकूफी के नाच खेलते हैं, अपनी मूर्खता पे नाज़ करते हैं।
ऐलाने हुकूमत का ताज पहनते हैं, जीवन में बेशर्मी को पेश करते हैं।
हरदम खुद की खुदाई का नशा चाहते हैं, इन्सान से आखिर हैवान बनते हैं।
या खुदा तेरे बन्दे ही आखिर तुझे बदनाम करते हैं।
- डॉ. हीरा