मंजिल की ना हमें पता है, बस चलते जाना है,
जीवन में क्या चाहते हैं, ये हमें ना पता है, बस करते जाना है।
आते हैं, जाते हैं, बिना कुछ पाए, जीवन को यूँही लुटाते हैं,
उसकी खुशामत करते हैं, पर फिर अपने में खो जाते हैं।
लाचार अपनी आदतों से बनते हैं, लाचारी में सबको कोसते है,
गुनाह पे गुनाह करते जाते हैं, और फिर माफी की सजा चाहते हैं।
खुदा भी वहाँ खामोश हो जाता है, अपने बंदो की हालात पे रोता है,
न किसी को बदलना है, न किसी को आगे जाना है, बस घुमते ही रहना है।
फिर भी खुदा की रहमत में न कोई कमी है, खुदा की बंदगी वही खुशी है,
पीले जो जाम एकबार खुदा का, फिर ना कुछ बाकी रहता है।
- डॉ. हीरा